Tuesday, August 9, 2011

जागा हिंदुस्तान

नई दिल्ली। 15 अगस्त यानी आजादी की सालगिरह के मौके पर आईबीएन अपनी खास पेशकश ‘जागा हिंदुस्तान’ के जरिए रोशनी डाल रहा है उन तमाम आंदोलनों पर जब आम भारतीयों ने आंदोलन की कमान अपने हाथ में ली और देश में बड़ा बदलाव आया। इसी कड़ी में सबसे पहले बात हुई देश के सबसे पहले बड़े जनांदोलन यानि असहयोग आंदोलन की।
ये बीसवीं सदी का शुरुआती दौर था। 1903 में 75 रुपये से ज्यादा आमदनी वाले भारतीयों की तादाद केवल 16 हजार थी। इधर बांटो और राज करो की नीति के तहत अंग्रेजों ने 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया। इसके खिलाफ पूरा बंगाल वंदेमातरम के नारों से गूंज उठा। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने पर गांधी जी ने स्वदेशी के मंत्र को और मारक बना दिया। उन्होंने तन पर एक धोती लपेट कर हिंदुस्तान के सबसे गरीब आदमी की तरह रहने का संकल्प लिया। सत्य और अहिंसा पर उनकी आस्था ने जनता की नजर में उन्हें संत बना दिया।
IBN7 की खास पेशकश ‘जागा हिंदुस्तान’-असहयोग आंदोलन
ये प्रथम विश्वयुद्ध का दौर था। अंग्रेजों ने वादा किया था कि वे युद्ध खत्म होने के बाद भारतीयों को कुछ विशेष सुविधाएं देंगे। लेकिन 1919 में उन्होंने रौलट एक्ट का तोहफा दिया। इसके तहत किसी को भी शक के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता था। ना अपील, ना कोई दलील और ना ही वकील। गांधी जी ने इसके खिलाफ देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। 13 अप्रैल को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में हो रही सभा पर जनरल डायर ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं। करीब एक हजार लोग मारे गए। देश में आग लग गई।



1 अगस्त 1920 को गांधी जी ने असहयोग आंदोलन की घोषणा कर दी। सरकारी स्कूलों का बहिष्कार किया गया, उपाधियां लौटाई गईं, जगह-जगह विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। गांधी का चरखा घर-घर पहुंच गया। साथ ही हिंदू-मुस्लिम एकता पर खास जोर दिया गया। लेकिन 5 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में चौरीचौरा में भीड़ ने पुलिस चौकी में आग लगा दी। 21 सिपाही और थानेदार की मौत हो गई। अहिंसा का व्रत टूटने की वजह से गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया। नेहरू से लेकर सुभाष बोस तक ने आपत्ति की लेकिन गांधी जी की नजर बहुत दूर देख रही थी।
बहरहाल, इस आंदोलन ने स्वतंत्रता आंदोलन को एक नया तेवर दिया। कांग्रेस अब मध्यवर्ग से निकलकर किसानों, मजदूरों और युवाओं के बीच पहुंच गई थी। सबसे बड़ी बात गांधीजी के रूप में देश को एक ऐसा नेता मिला जिसके वादे पर लोगों को यकीन था। असहयोग आंदोलन असफल रहा,लेकिन इसने लोगों के मन से डर निकाल दिया। जेल की सलाखें हों या फांसी का फंदा, भावनाओं के ज्वार के आगे सब छोटे पड़ गए।

No comments:

Post a Comment